नज़रे- अलीगढ़ / मजाज़ लखनवी
ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
सरशार-ए-निगाह-ए-नरगिस हूँ, पा-बास्ता-ए-गेसू-संबल हूँ
हर आन यहाँ सेहबा-ए-कुहन एक साघर-ए-नौ में ढलती है
कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है
जो ताक-ए-हरम में रोशन है, वो शमा यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे-गोशे से, एक जू-ए-हयात उबलती है
इसलाम के इस बुत-खाने में अस्नाम भी हैं और आज़ार भी
तहज़ीब के इस मै-खाने में शमशीर भी है और साघार भी
याँ हुस्न की बर्क चमकती है, याँ नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ एक नग्मा है, हर अश्क यहाँ एक मोती है
हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है शब-ए-शीराज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ
ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का, ये बज़्म-ए-वफा परवानों की
ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये खुल्द-ए-बरीं अरमानों की
फितरत ने सिखाई है हम को, उफ्ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
गाये हैं वफा के गीत यहाँ, चेहरा है जुनूँ का साज़ यहाँ
इस फर्श से हमने उड़ उड़ कर अफ्लाक के तारे तोड़े हैं
नहीद से की है सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोडें हैं
इस बज़्म में तेघें खेंचीं हैं, इस बज़्म में साघर तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं
इस बज़्म में नेज़े खेंचे हैं, इस बज़्म में खंजर चूमे हैं
इस बज़्म में गिर-गिर तड़पे हैं, इस बज़्म में पी कर झूमे हैं
आ आ कर हजारों बार यहाँ खुद आग भी हमने लगाई है
फिर सारे जहाँ ने देखा है येह आग हमीं ने बुझाई है
यहाँ हम ने कमनदेँ डाली हैं, यहाँ हमने शब-खूँ मारे हैं
यहाँ हम ने कबायें नोची हैं, यहाँ हमने ताज़ उतारे हैं
हर आह है खुद तासीर यहाँ, हर ख़्वाब है खुद ताबीर यहाँ
तदबीर के पा-ए-संगीं पर झुक जाती है तकदीर यहाँ
ज़र्रात का बोसा लेने को, सौ बार झुका आकाश यहाँ
खुद आँख से हम ने देखी है, बातिल की शिकस्त-ए-फाश यहाँ
इस गुल-कदह पारीना में फिर आग भड़कने वाली है
फिर अब्र गरजने वाले हैं, फिर बर्क कड़कने वाली है
जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा
हर जू-ए-रवान पर बरसेगा, हर को-ए-गराँ पर बरसेगा
हर सर्द-ओ-समन पर बरसेगा, हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा
खुद अपने चमन पर बरसेगा, गैरों के चमन पर बरसेगा
हर शहर-ए-तरब पर गुजरेगा, हर कसर-ए-तरब पर कड़केगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा