नज़र आती नहीं मंज़िल, तड़पने से भी क्या हासिल
तक़दीर में ऐ मेरे दिल, अंधेरे ही अंधेरे हैं
मजबूरी ने जिसको मारा, उसका कौन सहारा
मांझी तो मिल जाते हैं पर मिलता नहीं किनारा
नैनों से यूँ छिन गई ज्योती सीप से जैसे मोती
एक जान और सौ दुश्मन हैं, काश ये जान न होती