भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नज़र चुरा गए इज़हार-ए-मुद्दआ से मिरे / शान-उल-हक़ हक़्क़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नज़र चुरा गए इज़हार-ए-मुद्दआ से मिरे
तमाम लफ़्ज़ जो लगते थे आश्ना से मिरे

रफ़ीक़ो राह के ख़म सुब्ह कुछ हैं शाम कुछ और
मिलेगी तुम को न मंज़िल नुक़ूश-ए-पा से मिरे

लगी है चश्म-ए-ज़माना अगरचे वो दामन
बहुत है दूर अभी दस्त-ए-ना-रसा से मिरे

यहीं कहीं वो हक़ीक़त न क्यूँ तलाश करूँ
जिसे गुरेज़ है औहाम-ए-मा-वरा से मिरे

गिराँ हैं कान पे उन के वही सुख़न जो अभी
अदा हुए भी नहीं नुत्क़-ए-बे-नवा से मिरे

खुला चमन न हवा में फिर ऐ नक़ीब-ए-बहार
अभी तो ज़ख़्म हरे हैं तिरी दुआ से मिरे

नशात ओ रंग के ख़ूगर मुझे मुआफ़ रखें
छलक पड़े जो लहू साज़-ए-ख़ुश-नवा से मिरे