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नज़र हमारी वहीं पे जाके अटक रही है / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
Kavita Kosh से
नज़र हमारी वहीं पे जाके अटक रही है
वो गीले बालों को उंगलियों से झटक रही है
उसे नज़र भर के देखना भी हुआ है दूभर
हमारी यारी ज़माने भर को खटक रही है
जो उसके पीछे मैं भागता हूँ तो क्या बुरा है
सुकून पाने को सारी दुनिया भटक रही है
ख़फा़-ख़फ़ा रूख़ पे हल्की-हल्की सी मुस्कुराहट
ये पतझड़ों में कली कहाँ से चटक रही है
तुम्हारे चेहरे पे हैं अलामात ‘ना-नुकुर’ के
अगरचे ‘हाँ’ में तुम्हारी गर्दन मटक रही है
मैं उनको पाके बहुत बहुत खुश था ऐ ‘अकेला’
किसे ख़बर थी कहाँ ये क़िस्मत पटक रही है