नज़्म एक ट्रेन / प्रशान्त 'बेबार'
नज़्म एक ट्रेन है
जो दौड़ती है जज़्बात
और अल्फ़ाज़ की पटरी पे
कई दफ़ा तो कुछ नज़्में
भाग के मैंने पकड़ी हैं
और कुछ दफ़ा तो कई मिसरे
हाथ में आकर छूटे हैं
जिन नज़्मों की मंज़िल,
मेरी फ़ितरत तक नहीं जाती
छोड़ दीं हैं दौड़ने को
मेरे ज़ेहन के स्टेशन से दूर
कुछ तेज़ तीखी नज़्में तो
ज़ेहन में कई मील दूर से गूंजती हैं
जताती हैं कि कायनात की कितनी सदाएँ
बसर हैं इसके ऊँचे उठते धुएँ में
अचानक रोक दूँ जो ज़ेहन के स्टेशन पे गर
तो पटरियां चीख़ती हैं अल्फ़ाज़ की, मानो
किसी ने मिसरा अधूरा छोड़ा हो जैसे, या
जब चेन खींचता है दौड़ती ट्रेन में कोई
क्या पता इस तसव्वुर के लिए
कोई जगह बाक़ी है भी या नहीं
उन नज़्मों के भरे हुए डब्बों में
सारे लफ़्ज़ हाशिए में
कुचे पिसे से बैठे हैं
पर जब-जब ये नज़्म किसी
यादों के पुल से गुज़रती है,
या पढ़ी जाती है कलाम सी
शायरे-शब महफ़िलों में,
सारे जज़्बात की पटरियाँ
काँपने लगती हैं दूर तलक
जब तक यह नज़्म उस याद का
वो पुल पार न कर दे
एक ट्रेन है नज़्म,
नज़्म एक ट्रेन है।