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नदियाँ छोटी होती जाती हैं / चेस्लाव मिलोश / मनोज पटेल

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नदियाँ छोटी होती जाती हैं । शहर छोटे होते जाते हैं । और शानदार बग़ीचे
हमें वह दिखाते हैं जो हमने पहले नहीं देखा था : मुड़ी-तुड़ी पत्तियाँ और धूल ।

जब पहली बार मैं तैरा था झील के आर-पार
तो बहुत बड़ी लगी थी वह मुझे, यदि इन दिनों गया होता मैं वहाँ
तो हजामत वाले कटोरे जैसी लगती वह मुझे
उत्तर-हिमकालीन चट्टानों और हपुषा के पेड़ों के बीच ।

हलीना गाँव के पास का जँगल कभी आदिम लगता था मुझे
पिछले, मगर हाल ही में मारे गए भालू की गन्ध से युक्त ।
अलबत्ता एक जुता हुआ खेत नज़र आता था चीड़ के पेड़ों के बीच से ।
जो अलग था वह एक आम ढंग की क़िस्म बन जाता है ।

मेरी नीन्द तक में चेतना बदल लेती है अपने प्राथमिक रँगों को ।
मेरे चेहरे के नाक-नक़्श पिघल जाते हैं जैसे आग में कोई गुड़िया मोम की ।
और कौन राजी हो सकता है आईने में महज आदमी का चेहरा देखने के लिए ।

बर्कले, 1963

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल