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नदियां जो कहती हैं / योगेंद्र कृष्णा

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पेड़ पहाड़ जंगल और नदियां
जो कहती हैं मान लो
खुद को नहीं बदलने की जिद
इस तरह मत ठान लो...

अवसर नहीं है यह
पर्वत शिखरों की ऊंचाई
और सागर के गर्भ की
गहराई मापने का

दिल जीत लेने का
समय है यह
किसी लाचार बेबस
बच्चे या बूढ़े का

ताजे ओस में
बदल देने का वक्त है यह
बेजुबान किसी के आंसुओं को

समझ सको तो
मेरी निश्छल निरापद करवटों को
समझने का वक्त है यह

अंतहीन तुम्हारी ख्वाहिशों के बदलते रंग
और खाली होती निरंतर
तुम्हारी समझ को भी
आंकने का समय है यह

पेड़ों पर चांदनी का अर्थ
समझते हो क्या...
दिन भर की उत्तप्त मेरी वेदना को
रात भर सहलाती है चांदनी
भरी दोपहर की तपिश के लिए
सूरज भी हर दिन मांगता है मुझसे क्षमा

किस दुनिया में रहते हो
सुना है कभी नदियों को
एक दूसरे से बात करते
हंसते खिलखिलाते ?

हमें एक दूसरे से
जोड़ने की बात करते हो
जो खुद को भी खुद से
नहीं जोड़ पाए कभी...

मत पड़ने दो मुझपर
समझौतावादी जोड़ तोड़
और बेबस लाचार अपने
रिश्तों की छाया...

नहीं गा सकते अगर
मेरी संगति में सुरीला कोई सुर
गुनगुनाने दो गीत मुझे अपने
तुम भी अपने गुनगुनाओ...