भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदिया बहती जाये / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
दूरियां पर्वत से सागर की
रही है माप, नदियाँ बहती जाये
ढूँढ़ने निकली वह अपनी मंजिलों को आप
नदिया बहती जाये,
इक हिमानी पिघलकर खिसकी
कि लो जलधार फूटी
उछलती चंचल मृगी सी धार बन
प्रपात फूटी
वेगवंती बालिका पत्थर दे देती थाप
नदिया बहती जाये
काटकर पर्वत से अपने साथ कितनी गाद लाती
उतरकर मैदान में अपने किनारों पर बिछाती
काम, यह मज़दूरनी करती रही चुपचाप
नदिया बहती जायें
क्रोध में तरुणि आये गर तो पथ पर मोड़ लेती
रोक पाईं आंधियाँ उसको न सर्दी, ताप नदिया बहती जाये
बहते-बहते थक चली, वृद्धा न यह विश्राम पाती
भेंटने को मंज़िलें बांहे फैलाये बढ़ती जाती
सुन रहा सागर प्रिया की
मंद मंद पदचाप
नदिया बहती जाये।