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नदी-सी / संजीव 'शशि'
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लहर जीवन की समाये तुम नदी-सी,
बह चलो तटबंध सारे तोड़ कर।।
रूप नन्हीं-सी परी का जब लिया,
यों लगा खिलने लगीं फुलवारियाँ।
सरगमी रस घोलतीं मन मोहतीं,
गूँजती थीं हर तरफ किलकारियाँ।
साँवरी सुंदर सलोनी चंद्रमा-सी,
आ गयी हो गोद में नभ छोड़ कर।।
बन दुल्हन जब पाँव देहरी पर धरे,
नयन में सपने सजाये प्रीत के।
छोड़ कर माँ-बाप का घर आ गयीं,
हाथ थामे अजनबी से मीत के।
मन लुभातीं घर सजातीं लक्ष्मी-सी,
प्रीत से सबके दिलों को जोड़ कर।।
रूप जब ममतामयी माँ का लिया,
देवता भी कर रहे तुमको नमन।
पाँव छू करके तुम्हारे लग रहा,
एक पल में छू लिया जैसे गगन।
छुअन दी संतान को है चाँदनी-सी।
एक पल सोयी नहीं मुँह मोड़ कर।।