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नदी इतना ख़ामोश क्यों बहती है — 35-51 / अर्पण कुमार

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पैंतीस

वह आएगा
नदी के तट पर
और मुख़ातिब नहीं होगी
नदी उसकी तरफ़
हवाला नहीं देगा वह
ताज़ा, नम स्मृतियों का
और रुककर कुछ देर
भटककर
इधर-उधर
चला जाएगा वह
किसी अन्धेरे में
कोई मोड़ मुड़ता
पराजित, थका-माँदा

नदी तब

घुटनों में सिर दिए अपना
रोएगी निःशब्द
और वह घिसटता
नदी का रुदन-राग सुनता
सम्भाल सकेगा
अपने लड़खड़ाते क़दमों को
किसी तरह
गीले इतिहास के तपते
अनन्त बालूका-पथ पर ।

छत्तीस

किन्हीं एक जोड़ी
ज्योति-सीपियों में
मेरा प्रतिबिम्ब होगा
सम्पूर्ण मेरा
सिर्फ़ मेरा प्रतिबिम्ब

ढूँढ़ने के लिए
उस नेत्र-युग्म को
मैं जाने
कितनी नदियों को
मथ चुका हूँ
डूब चुका हूँ
कितनी नदियों में
अब तक ।

सैंतीस

नदी
अलसाई पड़ी थे
रेत पर
मैं उसके पास गया
वह उठ कर बैठी नहीं
बस, थोड़ा सरककर
जगह बनाई
मेरे बैठने भर

सदियाँ गुज़र गईं
बैठे हुए इस मुद्रा में
नदी का आलस्य बड़ा है
या मेरा ही धैर्य
कुछ अधिक है ।

अड़तीस

नदी ने
अपने ऊपर
एक पुल बना लिया था
लोग उसपर से गुज़रते
और वह
उनकी परछाईंयाँ
ख़ुद में लेकर
उन्हें गिनकर
बहला लेती मन अपना

वह एक नदी थी
मगर उसे
अपने जल से छेड़-छाड़
मँज़ूर नहीं थी क़तई

वह शुष्क तो नहीं
मगर एक शोख़ नदी थी

अपनी शर्तों पर
नदी चाहती थी
दूसरों का प्यार
उसे अपनी सम्पदा के
आकर्षण पर
अटूट भरोसा था
एक-एक कर लोगों ने
उस पुल से
गुज़रना बन्द कर दिया

नदी बहुत बाद में समझी
अपने अभिमान के
ख़ालीपन को
प्रेम के भ्रम को

अनन्त मृगतृष्णा में
सूखती कोमलता को
और अनछुए धरोहर के
छीजते सत्य को

नदी सूख चुकी थी
और पुल वीरान था
किसी आवाजाही से
निस्पन्द ।

उनतालीस

मैं कोई जटाधारी नहीं
फिर
एक गहरी, लम्बी नदी को
क़ैद करने की
यह कैसी अमर्यादित
वैतालिक असम्भव चाह है ।

चालीस

एक दृष्टि-भ्रम
हृद्य-व्याधि
आत्मविस्मृति है नदी

नदी मगर
एक दिशा-सूचक
लेपन-औषधि और
सजग इतिहास भी तो है ।

इकतालीस

नदी एक देह है
कोई खिलौना नहीं

नदी एक रहस्य है
कोई काला जादू नहीं

नदी एक विरासत है
कोई सम्पत्ति नहीं

नदी एक प्रेरणा है
कोई शर्त नहीं

नदी एक आकर्षण है
कोई कौतुक नहीं

नदी एक विस्तार है
कोई बन्धन नहीं

नदी एक स्त्री है
कोई मादा नहीं ।

बयालीस

रत्नगर्भा नदी के
मन्थन से
निकलता है
विष भी
नदी को गहरे
जीने / अपनाने के लिए
ज़रूरी है
नीलकण्ठ होना भी ।

तैंतालीस

लिखी जा सकती है
एक अनन्त काव्य-शृँखला
नदी पर
अगर अनन्त समय हो
कवि के पास
अनन्त ऊर्जा हो
स्वतः स्फूर्त जीवन में
और अनन्त साथ हो
नदी का शब्द से

नदी पर
तब लिखी जा सकती है
एक काव्य-शृँखला
कभी भी
किसी के हाथों ।

चवालीस

मेरी उम्र है
नदी
मेरा चरम है

मेरी स्मृति है
नदी
मेरा दायरा है

मेरी जीवन-रेखा है
नदी
मेरा पथ है

मैं हूँ
क्योंकि नदी है ।

पैंतालीस

बस में
सहेली से बतियाती
चहकती लड़की की
धुली पीठ
हँस रही थी
और झीने कपड़े से
बाहर आती
उसकी रीढ़
चिहुँक रही थी
सँगत देती हुई
चमकते दाँतों की भरपूर

हुलसती नदी की
आभा सारी
एकत्रित हो गई थी

ग्रीवा से कटि तक जाती
उस पतली पगडण्डी पर

मैं गणित लगा रहा था
उसके चेहरे पर अभी
निर्दोषता और खिलखिलाहट के
कितने-कितने प्रतिशत होंगे

किसी कोण
किसी दिशा से देखो
पूरी दिखती है नदी ।

छियालीस

इतिहास में वर्णित
परम्परा-गर्वित
देवलोक से उतरी
पृथ्वी का उद्धार करती
पवित्र कोई नदी
मुझे नहीं चाहिए

पवित्र आँचल
अक्सरहाँ
निर्मम और सशँकित
होते हैं
किसी भटकाव को
ठौर देने में अक्षम
शिथिल पैरों ने
बताई है मुझे

अपनी कहानी
हर पथ की
वृतान्त समेत

मेरा भागीरथ
उतार लाएगा
एक बदनाम
मगर विश्रान्तक नदी
मेरे अन्दर
मेरी तृष्णा के लिए
मुझे भरोसा है ।

सैंतालीस

क़ैद है
वक़्त के गर्भ में
जाने कितनी और नदियाँ
गुज़रेंगी जो मेरे क़रीब से
मुझे बहाती हुई
अपने साथ
तलछट पर पटककर
आगे बढ़ती हुई
पूर्ववत्
इतिहास दुहराती
पिछली नदियों का ।

अड़तालीस

वह नदी
जिसका जल
सर्वाधिक मीठा था
और जिए
अँजुरी भर ग्रहण करने निमित्त
मैंने दुनिया की
सारी नदियों के
प्रगल्भ आमंत्रण को
तब ठुकरा दिया था
जब मेरी तृष्णा का चरम
रेगिस्तान के टीले में
सूखी टहनियों-सा
टूट रहा था

सच पूछो

तो उस नदी का
कहीं अस्तित्व ही नहीं था
और मैं परिचित था
इस सच से
उस वक़्त भी ।

उनचास

नदी
हँस रही थी
सिखाया गया था उसे
हँस कर जीता जा सकता है
मैदान जितना चाहो

नदी ने
हासिल कर ली थी
एक बहुत बड़ी दुनिया
हँसकर
पसरकर
बिखरकर
मगर अब वह
नहीं रही थी
एक नदी ।

पचास

मुझे किनारे पर लगे
बोर्ड नहीं पढ़ने
नहीं पालन करना
सुरक्षा का
एक भी निर्देश
उतरना चाहता हूँ गहरे
नदी में
बिना किसी पूर्व-तैयारी के
शुभ-अशुभ परिणाम की
चिन्ता से परे

मैं चाहता हूँ
नदी भी न रोके
ऐसा करने से मुझे ।

इक्यावन

एक-तिहाई से अधिक उम्र
जी चुकी थी
नदी
जिस बरस मैं आया

मै हँसाता
नदी को
और वह
ख़ुश हो
करने लगती हिसाब
अपनी क्षीण
उँगलियों पर
बीते हुए गुरुतर समय का

नदी
उदास हो जाती

वक़्त
ईश्वर और नदी से
मैं किंचित
असम्भव ज़िद करता
नदी के पास
बैठे रहने की
अगले दो-तिहाई
समय तक

वक़्त और ईश्वर की वही जाने
नदी खिलखिला पड़ती
मेरे इस हठ पर
अपनी पूरी देह से
बलखाती हुई भरपूर
और चुप हो जाती
एकदम से
अगले पल

अबोला कोई
दर्द छिपाए
सदियों का

नदी इतना
ख़ामोश क्यों बहती है !?