भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी किनारे / ठाकुरप्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
नदी किनारे
बैठ रेत पर
घने कदम्ब के तले
होगे बजा रहे
वंशी
तुम मेरे प्रिय साँवले
एक हाथ से दिया बारूँ
एक हाथ से आँखें पोंछूँ
सोचूँ
मुझसे भी होंगे क्या
बिरह ताप के जले