नदी किसी एक कोने में सूखी सड़ी डाली एक / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
नदी किसी एक कोने में सूखी सड़ी डाली एक
स्रोत को पहुंचाये यदि बाधा तो
स्वयं सृष्टि शक्ति बहते हुए कूड़े से
करती है प्रकट वहाँ रचना की चातुरी -
छोटे द्वीप गढ़ती है, लाती खींच शैवाल दल
तीरका जो भी कुछ परित्यक्त सबको बटोर लेती
उपादान द्वीप सृष्टि के ऐसे ही जुटाती वह।
मेरे इस रोगी के छोटे से कमरे मं
अवरूद्ध आकाश में
वैसे ही चल रही सृष्टि है
सबसे निराली और स्वतंत्र स्वरूप में।
उसी के कर्म का आवर्तन
है छोटी सी सीमा में।
माथे पर रखकर हाथ
देखते हैं, ‘है क्या ताप?’
उद्विग्न आँखों की दृष्टि बस करती है प्रश्न यही,
आती क्यों नीद नहीं?
चुपके से दबे पाँव
आता प्रकाश है नित्य प्रभात का।
पथ्य की थाली ले हाथ में परिचारिका
कर करके बार बार अनुरोध उपरोध नित्य
पाती है विजय वह रूचि के विरोध पर।
यत्न हीन बिखरा रहता है जो कुछ भी
यत्न सजाती है उन सबको नित्य वह
आँचल से धूल मिट्टी झाड़कर।
निज हाथों से समान कर शय्या की सिकुड़न सब
निज आसन तैयार कर रखती है सिरहाने पर
सेवा जो करनी है रात भर जागकर।
बात यहाँ धीर-स्वर से होती है,
दृष्टि यहाँ वाष्प से स्पर्शित है,
स्पर्श यहाँ करूण और कम्पित है-
जीवन का यह रूद्ध स्रोत
अपने ही केन्द्र में आवर्तित,
बाहरी संवाद की
धारा से विच्छिन्न है बहुत दूर।
किसी दिन आती जब बाढ़ है
शैवाल द्वीप बह जाता है;
परिपूर्ण जीवन की आयेगी ज्वार जब
वैसे ही बह जायगा सेवा का नीड़ भी,
वैसे ही बह जायेंगे यहाँ के ये
दुख पात्र में सुधा भरे गिनती के नश्वर दिन।
‘उदयन
19 नवम्बर, 1940