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नदी की आरती मुझको उतार लेने दो / हरिवंश प्रभात
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नदी की आरती मुझको उतार लेने दो।
तराशे पत्थरों को अब निहार लेने दो।
है ख़ुशनुमा ये नज़ारा, बदला आबो हवा भी है,
सरस सलिला का तट पावन संवार लेने दो।
हमें भी एकता-मिल्लत का है देना सन्देश,
मुहब्बतों का ज़रा दीप, बार लेने दो।
ख़ुशी किसी की छुपाने से भी नहीं छुपती,
सही समय है ये जीवन गुज़ार लेने दो।
यहाँ पर ठीक रहे सब ये सोच रखते हो,
तो हुक्मरान को भी कुछ सोच बिचार लेने दो।
हुआ है साफ़ जो रास्ता, कुछ सदी के बाद,
चरण उस राह का जल से पखार लेने दो।