तोड़ तटों के बाँध
रूढ़ियों का कचरा फेंक
दुर्गंध से बेपरवाह
नवचेतना से भरी
बही जा रही नदी
नीरस नीरव बंजर भू
तरसती रसधार को मरू
उर्वर बनाती जा रही
ममता से भरी नदी
सांझ ढली
थका शिशु
रवि को अंक में लिए
लोरी गा रही नदी।
अमा निशा
काली हर दिशा
पर निडर निर्भया सी
ओज भरे गीत
गा रही नदी।
चिन्तन मनन में लीन
सुपथ के राही सी
दार्शनिक सी
किसी नयी खोज में
बही जा रही है नदी।