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नदी की नियति मुझसे नहीं रास्ते से जुड़ी थी — 18-34 / अर्पण कुमार

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अट्ठारह

नदी का मिलना
रास्ते का
एक सुखद संयोग था

नदी का सानिध्य
रास्ते का
घना कोई साया था

नदी का बिछोह
रास्ते का मानो
एक निष्ठुर चरित्र था

नदी की नियति
मुझसे नहीं
रास्ते से जुड़ी थी ।

उन्नीस

एक खोलकर
दस राज़
फैला देती थी नदी
अपनी अखरोट आँखों से
मेरी गट्ठेदार हथेली पर
दवा की पुड़ियों की तरह
किसी पर
कोई नाम
लिखा न होता
और सभी पुड़ियाएँ
एक जैसी होतीं

मैं हैरान हाथों से
उन्हें उलटता-पलटता
और उजबक-सा देखता

नदी की आँखों में

किसी मँजे हक़ीम की मानिन्द
नदी हँस पड़ती
मेरी उत्सुक अधीरता पर
किस वक़्त
कौन सी पुड़िया खोलनी है
नदी जानती थी ।

बीस

नदी उदास नहीं थी
जैसा दिखता था
लोगों को
नदी
ख़ुश नहीं थी
जैसा मानता था मैं

नदी ने
दरअसल जी थी
एक मुकम्मल उम्र
बह चुके थे जिसमें
दुःख-सुख
सब-के-सब ।

इक्कीस

मैं ग़ाली बकता
नदी की बीहड़ और अपरिहार्य
उपस्थिति को
कोसता
उसके विध्वंसक उफ़ान को

बाढ़ के चढ़ते दिनों में
समग्र दिशाओं में
सिर्फ़ नदी और नदी दिखती
मेरे तमतमाते
चेहरे को अँगूठा दिखाती ।

बाईस

नदी विस्मित थी
यह कैसा पुरुष है

एक क़दम नहीं बढ़ाता
मेरी लहरदार करवटों की तरफ़
अँकबद्ध नहीं करता
सर्पीली देह को
मेरे आमन्त्रण की घरघराहट पर

भर नहीं देता
ख़ाली विस्तार को
मेरी रेतीली तृष्णा की
चमकती गोचरता में

नदी विस्मित थी

इस पुरुष से
क्यों चाह रही हूँ
मैं यह सब !

तेईस

नदी से
मेरा रिश्ता क्या है
मैं नहीं जानता

नदी मुझे
अच्छी क्यों लगती है
मैं नहीं जानता

नदी मुझे
याद क्यों आई है इतना
मैं नहीं जानता

नदी पूछती है
यह सब
और मैं नहीं जानता

वह क्यों पूछ रही है !

चौबीस

नदी के तल में
अनन्त शब्द-मछलियाँ थीं
मगर
आ पाती थीं
कुछ ही सतह पर
पल-दो-पल के लिए
असह्य हो जाती
अकुलाहट जब
घिरे रह कर
जल की दीवारों में

शब्दों को परवाह थी
नदी की
और वे जानते थे
कि उनके नाद ही से

नदी का बहना है
यह एहसास
तरँगित कर देता उन्हें
और वे
अपने फेफड़ों को
भर लेना चाहते
ताज़े ऑक्सीजन से
बाहर निकाल कर
अपने-अपने सिर
एक उचक्के की तरह
हैरान नदी
हँस भर देती
उनके कौतुक पर

किनारे बैठ कर
ठण्डी रेत पर
मैं निहारा करता घण्टों

नटी वाचाल मछलियों को
और मुझे आश्चर्य होता
समय की तेज़ फिसलन पर
नदी की अलसायी भाषा पर
भाषा के घनीभूत शब्दों पर
और शब्दों के
तरल, रहस्यमय, अन्तहीन आशय पर ।

पच्चीस

मैं
भटक रहा था
अपनी धुन में
पैरों के नीचे बजते
उदग्र कँकड़ों और
अलसाई रेतों के
कुरमुरे, गीले सँगीत से
अनसुना, बेपरवाह

मैं भटक रहा था
आँखें समेटे
आसपास के
विलासमय सौन्दर्य से
एक सख़्त और उदास
चेहरा लगाए

किसी आमन्त्रण-उत्सव पर
प्रतिक्रियाविहीन

मैं भटक रहा था
तब भी
जब मेरे पैरों के नीचे
एक नदी सदानीरा बह रही थी
शीतल जल का तत्पर भण्डार लिए ।

छब्बीस

नदियाँ हैं
कितनी सारी
क़िताबों में
भूगोल की
गहरी, लम्बी
एक से बढ़कर एक

क्यों होता है
मगर ऐसा
कि कोई एक नदी
भा जाती है
हमें इस क़दर
कि अँट नहीं पाती वह
क़िताब के पन्नों में

एक चौखटे में क़ैद
जँचती नहीं है
हमारी आँखों को
और हम
किंचित न्याय करने के लिए
उसके आकार के साथ
ले आते हैं
अपने कमरे में एक मानचित्र
बड़ा जितना मिल सकता है
टाँग देते हैं सिरहाने
अपने बिस्तर के
और फेरते हैं उँगलियाँ
नदी की
टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं पर
मानचित्र में

क्योंकर हो जाता है ऐसा

कि एक नदी
उतर कर
मानचित्र से
पसर आती है
हमारे बाज़ू में ।

सत्ताईस

नदी और मेरे बीच
कोई तीसरा उपस्थित न होता
तब भी
जब नदी बह रही होती
अपने पथ पर
लोककल्याण में
और मैं
अनुवाद कर रहा होता
उसकी लहरदार ध्वनि का
लोकरँजन में
लोकतत्व होकर भी
सुरक्षित बचा लेते दोनों
अपनी ज़िन्दगी की निजता
लोकनज़रों से

कोई तीसरा
उपस्थित न होता
मेरे और नदी बीच
समूह में
एकान्त में
कभी भी ।

अट्ठाईस

मैं टूटता हूँ
निरन्तरता में
अपनी ज़िद की
आत्मदीनता में
अपने शीघ्र समर्पण की

मैं टूटता हूँ
स्याह अन्धेरे में
असफलता के
एकाकी उपलब्धि में
सफलता की

मैं
याद करता हूँ तब
नदी को

और टूटता हूँ
अपरिहार्य अनुपस्थिति में भी
नदी की ।

उनतीस

लापरवाही से बताया
नदी ने
अपना जन्मदिन
उस दिन
चलताऊ अन्दाज़ में
मैंने मुबारक़बाद दिया उसे

फिर यह
क्योंकर हुआ
कि नदी का जन्मदिन
मेरा काव्योत्सव बन गया !

तीस

बाँट नहीं सकती है
नदी मेरा अकेलापन
हर नहीं सकती है
मेरी थकान

पोंछ नहीं सकता मैं
नदी के आँसू
भर नहीं सकता
उसकी उदासी
अपनी अँजुरी में

मगर मैं
नदी के लिए
और नदी मेरे लिए
नहीं हैं अनुपयोगी

फिर भी ।

इकतीस

एक वटवृक्ष विशाल
उख़ड़ गया था
अपनी जड़ से
मगर नदी के सम्मुख
शान्त, अविचलित खड़ा था
(जैसे कुछ हुआ ही न हो)

तूफ़ान ने
नदी पर
बरपाया था जो कहर
क्षत-विक्षत उसमें
डाल-डाल घायल
दिखाता भी
तो क्या दिखाता
वह नदी को !

धैर्य और आस्था का
यह कैसा दावानल था
जल चुका था जिसमें
शिखर
सपना और विस्तार
एक आकाँक्षा-वृक्ष का

और नदी
अनजान थी
प्रलयकारी भूमिका से अपनी
जिसमें एक आकार
सम्भावनायुक्त होकर भी
चूक गया था
महाकार बनने से ।

बत्तीस

ख़ूब छेड़ा मैंने नदी को
और नदी भी
अव्यक्त कहाँ रही

सम्वाद
अधिकार
और सहज प्रवाह की
सीधी, गोचर रेखा
फिर क्यों नहीं बनी
मेरे और नदी बीच ।

तैंतीस

अपनी छवि की
बेहद परवाह करती
आत्मसजग नदी के
मामूली और रोज़मर्रा के
दुःख-सुख भी
नहीं थे सार्वजनिक
प्रेम तो ख़ैर
माँग ही करता है
गोपनता की

पोर-पोर
सराबोर
रस-धारा में
नदी का एक किनारा
सँकेत तक

न मिलने देता
दूसरे किनारे को
अपनी तरँगित मदनोत्सव का
ज़रा भी ।

चौंतीस

एक पल की सँगति है
नदी
सदी भर की
स्मृति है ।