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नदी की बाँक पर छाया (कविता) / अज्ञेय
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नदी की बाँक पर
छाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है
कहीं फिर वध्य होता हूँ...
दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बाँधना मन को
पुरानी लेखनी
जो आँकती है
आँक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अँधेरे विवर में
चुप झाँक जाने दो
पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही
फिर-फिर उमड़ता है
अँधेरे में बाढ़
लेती
मुझे घेरे में
दिया तुम को गया
मेरी ही इयत्ता से
बनी ओ घनी छाया
दर्द फिर मुझ को
अकेला
यहाँ लाया-
नदी की बाँक पर
छाया...
नयी दिल्ली, 8 नवम्बर, 1979
बिनसर, 1978