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नदी के दो किनारे / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
Kavita Kosh से
दो शरीर
परस्पर सलग
परस्पर विलग
आत्मीय आदान -प्रदान का सेतु बंध,
था ही नहीं.
आकर्षण विकर्षण का प्रतिबिम्ब ,
था ही नहीं.
परस्पर प्रति,सहज समर्पण, स्नेहानुबंध
था ही नहीं .
नितांत असम्पृक्त एकाकी होकर भी.
हम निरंतर इस तरह साथ हैं,
जैसे धरती पर छाया आकाश ,
विराट नदी के दो अदृश्य किनारे,
परस्पर सलग ,
परस्पर विलग.