Last modified on 30 अक्टूबर 2017, at 11:48

नदी को फिर नाव की / कुमार रवींद्र

सुनो, सजनी
नदी को फिर नाव की होगी ज़रूरत
            रात बरखा हुई जमकर
 
सामने के लॉन में
पानी भरा है
हो गया चंपा हमारा
फिर हरा है
 
क्यारियों में
कुछ दिनों पानी लगाने से मिली फुर्सत
             रात बरखा हुई जमकर
 
भींजने का सुख
हवा में बह रहा है
पत्तियों से रितु-कथा
वह कह रहा है
 
हाँ, हमारी
थकी-झुलसी देह को भी मिली राहत
             रात बरखा हुई जमकर
 
ग़ज़ल कहने का
हमारा मन हुआ है
लग रहा दिन
किसी देवा की दुआ है
 
उधर देखो
उस क्षितिज पर सात रँग की लगी पंगत
               रात बरखा हुई जमकर