नदी ने खूँटा डाल दिया है मेरे पैरों में / संदीप शिवाजीराव जगदाले / सुनीता डागा
मेरे गाँव को डुबोकर
आगे बढ़ती नदी
पहुँच चुकी है इस गाँव में भी
यह गाँव जो जाना जाता है
सातवाहन, चक्रधर, एकनाथ और ईंट-भट्टियों के लिए
मैं गोदावरी के तट का एक गाँव छोड़कर
आ बैठा हूँ उसी के तट पर बसे इस गाँव में
बरसों से चल रहा हूँ इसके प्राचीन रास्तों पर
पर यह पराई माटी
मेरे तलुवों से लिपटती नहीं है
मेरे पैर अपने गाँव की धूल को बिसरते नहीं हैैं
किसी श्रद्धालु के द्वारा पात्र में डाली गई
गिन्नी को हज़म कर जाए
उस तरह लील लिया
गोदावरी ने मेरे गाँव को
फिर मैंने कितने हाथ-पाँव मारे कि
जहाँ हूँ वहीं पर तर जाऊँ
जो सामने आया उसे अपनाता गया
सारी जड़ों को भूल चुका-सा मैं
निस्संग होकर बसर करता रहा
पूरी तरह छीले जा चुके तने का पेड़
ठूँठ बनता जाता है धीरे-धीरे
उसी तरह मुरदार बनता गया मैं
पर रक्त में भीग चुकी जड़ों को
कहाँ संभव हुआ
पूरी तरह से खदेड़कर फेंक देना
उगती रहीं वे पुनः पुनः
मैं ढूँढ़ रहा हूँ
शायद कहीं नज़र आ जाए नदी में
मेरे दादा-परदादाओं की राख
पानी को जो यह चढ़ चुका है मटमैला रंग
कहीं मेरी सैकड़ों पीढ़ियों की राख की बदौलत तो नहीं आया होगा ?
उन्होंने धोए होंगे नदी में उतरकर
पसीने से तरबतर अपने बदन
तब पानी में उतरी उनकी घुटन
क्या अब भी शेष होगी इस पात्र में कहीं पर ?
ऐसे कई अनसुलझे सवालों के झुण्ड
उग आए हैं मेरे भीतर
हमसे ही किसलिए बैर निकाला ?
कहते हुए हज़ारों बार लताड़ा मैंने नदी को
क्या नदी बैर पालती है मन में इनसान के लिए ?
नदी ने उम्र भर के लिए
खूँटा डाल दिया है मेरे पैरों में
अब हिलना संभव नहीं है कहीं पर
मन बाँध की तरह
एक ही जगह पर धँसा हुआ है ।
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा