नदी बनाम स्त्री / सुरेन्द्र रघुवंशी
मेरे शहर से बहुत दूर है तुम्हारा शहर
इतना कि उस तक पहुँचने में
कई शहर, प्रदेश या देश और समन्दर
करने पड़ेंगे पार
भाषा, रंग, नस्ल, भूगोल और परिवेश की भिन्नता भी
असमर्थ हुई जहाँ अलगाव का कारण बनने में
तब वहां कौनसी चुम्बक थी जिसने आकर्षित करके एक कर दिया हमें
और यहाँ पुनः सिद्ध हुआ
कि विभाजन मनुष्य का मूल स्वभाव नहीं है
सुदूर क्षेत्र से यहाँ आती हुई
तुम नदी हो या चिड़िया हो
कौन हो तुम स्त्री !
जो अपने पैरों में बाँध दिए गए बन्धनों को तोड़कर
बह रही हो मानवीय धरातल पर तीव्र गति से
बहुत जरूरी था तुम्हारा प्रवाह
खेत-खेत में सूख रही फसल के लिए
जिससे आँखों में पल सकें अन्न के महकते सपने
और आँगन में गूँज उठें लोकगीत
किसी भी धुन पर थिरकने लगें पाँव अचानक
बहुत सोच समझकर व्यापारिक गणित के मुताबिक
नहीं चलता ज़िन्दगी का लश्कर
परिस्थितियों के अनुसार ज़रूरी बदलाव
समाज की संरचना में कोई छेद नहीं हैं
गरजते बादलों और चमकती बिजली के बीच
नैसर्गिक वर्षा तुम आओ निडर होकर
और धरती पर बहो नदी बनकर
अभी तुम्हें धोना है पाखण्ड में लिपटे एक युग का कलंक