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नदी बेक़सूर थी मगर उससे क़सूर हुए — 1-17 / अर्पण कुमार

एक

नदी
मेरी पीठ पर लदी थी
और मैं
नदी की गोद में
खड़ा था
.....
ऐसे ही
किसी ‘संगम’ पर
कोई ‘सरस्वती’
अदृश्य हुई होगी
अपने दुर्दम्य साहस से
लजाती ख़ुद भी ।

दो

नदी निर्वसन
निहारती थी
ख़ुद को
मेरी आँखों में
नदी
काँपती थी
अपने ही लावण्य से
मेरे होंठों के पाटों बीच

सारा शहर अनभिज्ञ था
वह नदी
मेरे अन्दर बहती थी ।

तीन

मेरे हिस्से की रेत को
मैं खड़ा था
जिस पर
उफ़नती नदी ने
ले लिया
अपने अंक में

नदी उतर रही थी
और मैं
अडोल खड़ा था
वह जँगल की नदी थी
चढ़ना-उतरना
उसकी मर्ज़ी थी ।

चार

नदी जो बोलती
मैं टाँक देता
कविता में उसे
नदी परेशान...
उसका शब्दकोश
सूख रहा था

कहा — ‘विदा’
एक दिन
नदी ने
तरेर कर अपनी आँखें
और मेरी उँगलियों से
चुम्बक की तरह चिपकी क़लम
छूट पड़ी सहसा
नदी खिलखिला पड़ी
दोनों किनारों से

नदी जीत गई थी
उसकी धार
लौट रही थी
और क़ायम हो रहा था
आत्मविश्वास
नए सिरे से
वह ख़ुश थी
और उसे
मनोरँजन दरकार था
....
नदी मचल रही थी
किसी नई कविता के लिए
और मैं निःशब्द था
डूबते सूरज की मानिन्द
और ख़ामोशी
किसी विदा-गीत के
अन्तिम शब्द से उठकर
फैल रही थी

आकाश के पश्चिमी छोर पर
गहन अन्धेरे में
विलीन हो जाने के लिए
आख़िरकार ।

पाँच

मेरे साथ
नदी
मेरे कमरे में आई
और बाक़ी छुटभैये सामानों समेत
लील गई
मेरे बिखरे पन्नों के ढेर को भी
अपनी तेज़ धार में

मेरा इतिहास
नदी
नए सिरे से
लिखना चाहती है ।

छह

नदी बहती है
यह सब देखते थे
नदी किस मोड़ मुड़ती है
यह कुछ जानते थे
नदी किसकी खोज में है
यह कोई नहीं जानता था
नदी उसे कब मिलेगी
यह नदी को भी मालूम न था ।

सात

हर पास आने वाले को
प्यासा समझती है
नदी पहली आहट में

नदी
चौंकती है
पुलकती है
जब उसकी जलराशि बीच
खड़ा हो कोई
अर्घ्य देता है
सूरज को
उसके ही अंश से
प्रार्थना करता है
मन्त्रपूरित होंठों से

अपने अस्तित्व
और अस्तित्व की तरलता पर
ठिठकती है नदी
अपनी भूमिका और भूमिका के देय पर
गर्वित होती है नदी

नदी का पानी
कुछ अधिक उजला
दिखता है ।

आठ

मेरी आँखों में
उतर आती है नदी
मैं अपनी हथेली को
आँखों से छुआ कर
उसे चुल्लू बना कर
होंठों तक लाता हूँ

मैं कोई सागर नहीं
मगर एक पूरी नदी
पी जाता हूँ ।

नौ

अँकुराया था
मेरा पुरुष
जिस दिन पहली बार
एक नदी उतरी थी
मेरे अन्दर उस दिन
पूरे वेग से अपने

दुनिया की
सारी नदियों से तेज़
बह रही है
वह नदी
मेरी कविता में
तभी से ।

दस

नदी दुआ करती थी
और वह कम पड़ता था मुझे
मैंने नदी को ताबीज़ बना
बाँध लिया
अपनी बाज़ू पर

क़ुरआन के वरक पर
आयत की तरह
बिछ गई नदी ।

ग्यारह

नदी को मैंने
एक कविता सुनाई
उस दिन

कविता में नदी थी
या नदी में कविता
जाने क्या था
नदी की आँखों से
एक और नदी
बहने लगी !

बारह

नदी मेरी थी
और सबकी थी

मैं नदी का था
और किसी का न था ।

तेरह

रच रहा हूँ मैं कविता
नदी पर
पुरुषार्थ और समर्पण के साथ
और शहर के दूसरे हिस्से में
दूर मुझसे
किसी और के पथ में
बह रही होगी नदी
अपनी बाँहें फैलाए

कवि की सीमा कह लो
या इसे मर्यादा नाम दो
कविता तक ही ला सकता है
वह नदी को
और शायद तभी
नदी बन पाती है

कविता भी ।

चौदह

पाल रखे थे
कई जलचर
नदी ने
सार्थक सिद्ध करने के लिए
ख़ुद को
समय गुज़ारने के लिए अपना

साथ होता
कोई न कोई
तब भी
जब नदी
बहती दिखती अकेली ।

पन्द्रह

शहर की
अनन्त दीवारों के पीछे
ऐसी ही किसी गली में
(भटक रहा हूँ
जिसमें मैं इस समय)
नदी
बह रही होगी
अपने वेग से
पालन करती
अपनी दिनचर्या का
निष्ठापूर्वक
अनजान
मेरी किसी तृष्णा से

जब सारी गलियाँ

एक सी हैं
तो फिर
इतनी गलियाँ क्यों हैं
शहर में
कि कोई चाहे तो
नहीं ढूँढ़ सकता
एक नदी
लाख कोशिशों के बाद भी ।

सोलह

दिन भर के
तामझाम के बाद
गहराती शाम में
निकल बाहर
अन्दर की भीड़ से
चला आता हूँ
खुली छत पर
थोड़ी हवा
थोड़ा आकाश
और थोड़ा एकान्त
पाने के लिए
निढाल मन
एक भारी-भरकम वज़ूद को
भारहीन कर
खो जाता है

जाने किस शून्य में
अन्तरिक्ष के
कि वायु के उस स्पन्दित गोले में
साफ़-साफ़ महसूस की जाने वाली
कोई ठोस
रासायनिक प्रतिक्रिया होती है
और अलस आँखों की
कोर से
बहने लगती है
एक नदी
ख़ामोशी से
डूबती-उतराती
करुणा में
देर तलक

भला हो अन्धेरे का
कि बचा लेता है

एक पुरुष के स्याह रुदन को
प्रकट उपहास से
समाज के ।

सत्रह

नदी बेक़सूर थी
मगर उसका क़सूर
यह था कि
वह बहते-बहते
मेरे पास चली आई थी

नदी बेक़सूर थी
मगर उसका क़सूर
यह था कि
वह अब
आगे बहना नहीं चाहती थी

नदी बेक़सूर थी
मगर उससे क़सूर हुए ।