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नदी में कोई कंकड़ न डाले / शम्भु बादल

Kavita Kosh से
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नदी बहती है
इतिहास रचती है
उसकी कल‍-कल धारा का
गीत होता है
गीत कोई अवरुद्ध न करे

सुबह से शाम तक
शाम से सुबह तक
नदी
सूर्य को
चाँद.तारों को
धरती को
सीने से लगाए
लगातार चलती है
पथरीले पथ पर
पाँवों में पड़ते छाले का
ग़म नहीं

हमारे गाँव की
एक नदी है
अनन्त काल की नदी
कहाँ से आती है ?
कहाँ जाती है ?

हम नहीं जानते
सिर्फ़ इतना जानते हैं
यह तटों के बीच से
तटों के पार जाती है
नये तट बनाती है
प्यासों की तृप्ति में
फ़सलों की हँसी में
इसकी मुस्कान रहती है

पहाड़ी सीने का दर्द
पत्ती- टहनी की कहानी
पक्षी की पंख-कथा
गाय-बाघ के पग-चिह्न
कुल्हाड़ी की धार
हमारे मन का कसैलापन
गोलियों की तड़प
बमों के खण्डहर
ख़ूनी हाथों की दुर्गन्ध
जीवन-मृत्यु के नाटक
बहुत कुछ लिए-दिए
चल रही है नदी

ध्यान रखना
नदी में कोई कंकड़ न डाले