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नदी सूखी / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

हम नदी का विरुद गाते रहे
नदी सूखी

हाँ, समय के ताप को वह सह न पाई
व्यर्थ ही हम
शिव-जटाओं की रहे देते दुहाई

नदीतट पर बह रही थी
हवा रूखी

धूप जो थी सखी उसकी - हुई वैरी
आग सुलगा रही
बिरछ-गाछों के तले जलती दुपहरी

देख उठता धुआँ जंगल से
आँख दूखी

इधर रेती पर पड़ी मछली तड़पती
शाह की मीनार
तट पर धुएँ की दीवार धरती

घिरी उससे नदी प्यासी
हुई भूखी