नदी / रुस्तम
1.
उस शहर के पास वह नदी बहुत मुश्किल से नदी थी।
हम बहुत यत्न करके, बहुत मुश्किल से उस तक पहुँचते
थे। हमारा रास्ता जिस जंगल में से गुज़रता था उसे जंगल
बने रहने में भयंकर कठिनाई होती थी। कितनी मुश्किल
से मल्लाह अपनी लाठी से नाव को धकेलता था! पक्षी
बहुत मुश्किल से, बहुत मेहनत करके मछलियाँ पकड़ते
थे। वे मछलियाँ उस पानी में जो बहुत मुश्किल से पानी
था बहुत मुश्किल से मछलियाँ थीं।
उस नदी के किनारे सूर्य धीमी गति से डूबता था। शाम
बने रहना चाहती थी पर ऐसा कर नहीं पाती थी। किसी
आदिम फ़िल्म में चलने की तरह चलते हुए हम घर को
लौटते थे।
2.
शहर से थककर हम नदी को जाते थे। उन दिनों नदी
बहुत कम थी। हम स्वयं बहुत कम थे नदी के अभाव में।
बहुत दूर चलकर हम उस तक पहुँचते थे। केवल पाँव
हमारे उसमें डूब पाते थे। उसमें पाँव रखकर, हम सोचते
थे: ‘यह नदी है। अब यही नदी है। अब इसे ही हमें नदी
कहना है।’ इस तरह हम उसे नदी कहते थे।
तब भी भव्य थी वह बहुत-कम-नदी, वह कम-से-कमतर
नदी। उसका बिम्ब भव्य था।
3.
ख़ाली नदी बहती थी। हर रोज़ ख़ाली मन लिए हम उसके
किनारे बैठते थे। हमें नहीं पता हमारा इस तरह से बैठना
नदी को कितना भाता था।
पहाड़ियाँ मिट्टी और चट्टानों से भरी-पूरी दीखती थीं। ख़ाली
हड्डियों से तैरते हुए पक्षी हवा में लहराते थे। कभी-कभी
वे नदी में भी उतरते थे। वहाँ वे मछलियाँ पकड़ने का
स्वाँग दोहराते थे।
मछलियाँ मछलियों की तरह ही उनके मुँह में जाती थीं।
ख़ाली नदी बहती थी।
4.
मैं नदी को गया था।
आज फिर मैं नदी को गया था।
आधी-सी नदी वहाँ थी।
आज फिर मैं नदी को गया था।
नदी
धूप में
पड़ी हुई थी,
आज फिर जब मैं नदी को गया था।
क्या सोच रही होगी
नदी धूप में पड़ी हुई?
क्या सोच रही होगी
जब मैं नदी को गया था?
सूर्य उस पर गिर रहा था।
ओह वह कैसा दृश्य था!
सूर्य
नदी पर गिर रहा था।
अलसाती हुई-सी
नदी की देह
निश्चल
वहाँ धरी थी
आज फिर जब मैं नदी को गया था।
5.
मैं नदी को गा रहा था।
उस दिन मैं नदी को गा रहा था।
कितना अच्छा था कि नदी वहाँ थी।
कितना अच्छा था
कि मैं नदी को गा रहा था।
नदी को गाते हुए मैं ख़ुश था।
नदी ख़ुश थी कि मैं नदी को गा रहा था।
नदी का ख़ुश होना अच्छा था।
मेरा
नदी को गाना
और उसे गाते हुए ख़ुश होना
अच्छा था।
6.
हम नदी को ढूँढ़ते थे। कभी अचानक या धीरे-धीरे वह
ग़ायब हो जाती थी। नदी हमसे लुका-छिपी खेलती थी।
जब हम उसे ढूँढ़ लेते थे, उसकी हँसी पहाड़ियों में गूँज
पड़ती थी। हम सहमकर उसके पोपले, खुले मुख की ओर
देखते थे। वहाँ हमें मृत्यु की छाया नज़र आती थी। हम
नदी को ढूँढ़ते थे।
7.
नदी का नहीं होना
और हमारा काँपना
कि वह नहीं थी।
नदी का छिप जाना
— कैसे कभी-कभी नदी
छिप जाती थी! —
और हमारा सोचना
कि वह कभी थी ही नहीं।
फिर काँपना।
8.
नदी की
प्रतीक्षा में
खड़े रहना।
वहाँ से
हिलना तक नहीं।
सोचना
कि वह आएगी,
ज़रूर लौटेगी
वहाँ से
जहाँ भी
वह गई है।
9.
नदी का होना,
नहीं होना,
उसका चले जाना,
लौटना,
फिर वापिस चले जाना —
यही नदी थी।
नदी
हमारे प्राण में
बस-सी गई थी।
उसकी
हर हरक़त
हमें
कँपाती थी।