भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नन्हीं चिड़िया / इला कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीले परों वाली
सलेटी नन्ही चिड़िया
मुलायम रोऔं से ढकी है तुम्हारी छाती
दाना चुगने के क्रम में
तुम
मेरे कितने पास आ गयी हो
फिर भी
नहीं गया है तुम्हारा डर
मेरे प्रति यह वेवजह आशंका
आखिर क्यों है?
चुगती हो कुछ दाने
जाती हो ऊपर
उस पेड़ पर बने अपने घोंसले में
रुकती हो वहां कुछ क्षण
नन्ही चोंच में डालकर वे कण
वापस आती हो
चुगती हो अगला दाना
मैं भी तो बीनती हूँ दाल
बच्चों की रसोई के लिए

आओ मेरे पास
समझो मैं
नहीं जानती मेरी भाषा
मैं कहां समझ पाती हूँ
मन की सात तहों के भीतर बैठा
हमारे चेतन का स्वामी
एक ही है अदृश्य अगोचर
वह जो रचयिता है इस मैं उस तुम का
आओ बैठो मेरी कुर्सी के हत्थे पर
खा लो कुछ दाने इसी थाली से
ले जाओ
चोंच में भरकर कुछ और दाने

नन्ही चिड़िया !