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नन्हे- नन्हे हाथ / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
सर पर है साया नहीं, भटकें बाल अनाथ।
मजदूरी को हैं विवश, नन्हे-नन्हे हाथ।।
डाँट-डपट चुप रह सुने, धोता है कप प्लेट।
बालक सब कुछ सह रहा, बस भरने को पेट।।
गाड़ी, शीशे पोंछते, पाते हैं दुत्कार।
जिनपर टिका भविष्य है, हाय! वही लाचार।।
ईंटें-पत्थर ढो रहे, नन्हे- नन्हे हाथ।
बचपन उनका मर गया, पटक-पटक कर माथ।।
तन पर हैं कपड़े फटे, जीते कचरा बीन।
कुछ बच्चों की है दशा, अब भी कितनी दीन।।
जब हर बच्चे को मिले, शिक्षा का अधिकार।
सपना विकसित देश का, होगा तब साकार।।
कील हथौड़ी दी थमा, फेंकी छीन किताब।
कुछ पैसे को बाप ने, रौंदे नन्हे ख़्वाब।।
छोटे बच्चे कर रहे, जब मजदूरी आज।
तब 'गरिमा' कैसे कहें, विकसित हुआ समाज।।