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नफरत / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
मैं नफ़रत करती हूँ
बरसों बाद वापस
आती तुम्हारी आवाज में उगे है तमाम काटें
मिलने की बात पर बरगद का वो
सबसे पुराना पेड़ जल कर खाक
हो गया सा जान पड़ता है
उस मोड़ पर जहाँ से मुड़े थे तुम
एक गहरा कुआँ अचानक से दिखता है मुझे
जिसके अन्दर बरसों से पड़ी मैं
तुम्हारा नाम ले ले कर खामोश हो गई थी
बिनाकुछ कहे तुम एक ऐसी दुनिया में
थे जहाँ मेरी उदासी के कोई गीत
तुमने कभी नही सुने
बड़ी मुश्किल से जीना सिखा है
नफ़रत करना भी
कोई हक नही
मेरा प्यार पाने का
हाँ नफरत करती हूँ इतना
जितना टूट कर किया था प्यार कभी
तुम्हारे दिए जख्मों की टीस
अभी ताजा है
इस टीस में पुरानी यादों की
बची हुई नरम हरी कोपलें है
मैंने इन्हें गहरे रोपा है