भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नफ़रत की ये कैसी बस्ती है / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नफ़रत की ये कैसी बस्ती है
उल्फ़त को रूह तरसती है

कहती है ये दुनिया प्यार जिसे
धोखा है नफ़स-परस्ती है

रो लेने दो जी भर के मुझको
जैसे बरसात बरसती है

ग़म लेने को है जान मेरी
और दुनिया ताने कसती है।