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नफ़रत की ये कैसी बस्ती है / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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नफ़रत की ये कैसी बस्ती है
उल्फ़त को रूह तरसती है
कहती है ये दुनिया प्यार जिसे
धोखा है नफ़स-परस्ती है
रो लेने दो जी भर के मुझको
जैसे बरसात बरसती है
ग़म लेने को है जान मेरी
और दुनिया ताने कसती है।