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नफासत / प्रेम कुमार "सागर"
Kavita Kosh से
मेरे महबूब बस इतनी नफासत प्यार में है
मेरी सुनवाई मेरे ही कातिल के दरबार में है |
अमीरों को सुना कहते हुए इश्क़-ए-दुकान में
मज़ा जो बिकने में है वो नहीं खरीददार में है |
लड़कर जलजले से आजतक जीता कोई पगले
वो कश्ती देख, अब भी, तेरे इंतज़ार में है |
कहीं अल्लाह को भी बन्दे भला भूल पाते है
तेरी तस्वीर अब भी इस दिल-ऐ-लाचार में है |
चिकोटी काट लेता है भ्रमर को आज भी काँटा
शरारत का नशा कुछ इस कदर बयार में है |
क्यूँ चिपका है किनारे से; ले ललकार लहरों का
परीक्षा तेरी 'सागर' आज बस मझधार में है