भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नमक का स्वाद / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
देखा है कभी
नमक के खेतों के बीच
उन कामगारों को
जो घुटने तक प्लास्टिक चढ़ाए
चिलचिलाती धूप में
ढोते हैं नमक
दूर-दूर तक कहीं
साया तक नहीं होता
पल भर बैठ कर सुस्ताने को
अगर साया होता
तो क्या बनता नमक
तो क्या मिलती कामगारों को
दो वक्त की सूखी रोटी
शाम के धुंधलके में
अपने गले हुए पांवों को सिकोड़
चखता है वह
हथेली पर रखी रोटी
और रोटी के संग
नमक की डली का स्वाद
सत्ता ने जो बख्शा है उसे
दूसरों के भोजन को
सुस्वादु बनाने के एवज
महरूम रखकर सारे स्वादों से