भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नमन जुहारों / नईम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नमन जुहारों,
प्रकृत प्रार्थनाओं सा हो लूँ,
ओ मेरे अंतर्यामी थोड़ा सम्बल दो!
भाख रहा होऊँ असत्य तो अंतेवासी
मुझे छोड़कर
जहाँ करे मन निश्चित चल दो।

सदियाँ बीत गई पर मन की
बात न आ पाई ओठों तक,
गर्भित दिन आ पहुँचे हैं अब
घी गुड़ से हल्दी सोंठों तक;

पिता रह लिया बहुत तनिक माँओं सा हो लूँ।
विनय निकम्मी नहीं असल दो।

बान पड़ी रिश्तेनाते की, सीमाओं के घेरे में,
एक हवा, पानी, प्रकाश जी-जान एक मेरे तेरे में;
निकल कूप से बाहर धाराओं सा हो लूँ
आँखों में रक्ताभ नहीं
प्रभु, नील कमल दो।

आशीषों जैसा उदात्त कुछ,
कुछ आकाशों जैसा निर्मल,
आँचल की निर्भय छाया सा
सुख-दुख में हो लूँ मैं शामिल;

विद्याविनत असीम अर्चनाओं सा हो लूँ।
भीतर बाहर हरित
भले बीहड़ जंगल दो।
ओ मेरे अंतर्यामी थोड़ा सम्बल दो!