भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नमी कुछ रुमालों मे है / विजय वाते
Kavita Kosh से
वो कहाँ राजधानी के महलों मे है
जो सुदामा के चावल के दानों मे है
जिसपे झूले पड़े थे वो पीपल हरा
अब सजावट के सामां सा गमलों मे है
हम जहाज़ों से उड़ कर कहाँ जायेंगे
लौटना तो पुराने मुहल्लों मे है
दोस्त यारों ने अब तक जो बख्शी हमें
वो मोहब्बत कहाँ अपने तमगों में है
आसमां इनके कदमों तले आ सके
जान इअतनी तो नन्हें परिंदों मे है
इन हवाओं कि खुश्की का ये राज़ है
सब शहर की नमी कोई रुमालों मे है