राग शुद्धसारंग, तीन ताल 11.9.1974
नयना जुगल-रूप रस राते।
छके रहहिं वा अनुपम छवि में, कहूँ न आते-जाते॥
निरखि-निरखि उमँगत रति-रस उर, निरखि न कबहुँ अघाते।
नील-पीत अम्बुज के अलि जनु रहहिं तहीं मँडराते॥1॥
अंग-अंग की अद्भुत मृदिमा, उपमा कहूँ न पाते।
पी-पी प्रीति-पियूष दोउन को मरि-मरि हूँ जी जाते॥2॥
दोउ के नयन लगे दोउन में, दोउ रस-सिन्धु समाते।
दोउ रस-रूप रसिक चूड़ामनि रसि-रसि रस ललचाते॥3॥
या ललचन में ही मन मोह्यौ, मन ही में बसि जाते।
बसे रहें मन-सदन सदा तो हूँ नहिं नयन अघाते॥4॥
कहा कहों विधि की विडम्बना, जो द्वै नयन बनाते।
जो मैं ही होती विधि तो प्रति अंग नयन ह्वै जाते॥5॥
पलकहीन सब नयन बनाती, पलहुँ न फिर बिलगाते।
अंग-अंग वह रूप-सुधा छकि सन्तत रसहिं समाते॥6॥