नयनो में दो नयन सलोने / सरोज मिश्र
नयनों में दो नयन सलोने, तन में मन मजबूर रखा है।
चाँदी की डिबिया में अब भी चुटकी भर सिन्दूर रखा है।
चन्दा तुम तो सैलानी हो,
गाँव गली शहरों तक जाते।
जाते ही बस नहीं ख़बर भी
इधर उधर की लेकर आते।
है मनुहार की अगली तिथि पर
प्रिय की नगरी में जब जाना।
मेरा एक सन्देशा उनको
दबे पाँव घर तक दे आना
दुविधा है कैसे पहुँचोगे
चलो तनिक अनुमान बता दूं।
रंग रूप से घर बाहर तक
हर पक्की पहचान बता दूं।
दरवाजे पर सजी रंगोली
घर महलों-सा झिलमिल होगा
तुमसे ज़्यादा गोरी होगी
अधरों पर काला तिल होगा।
कहना जो क़समें खायीं थीं रख कर हाँथ हथेली पर
कसमें केवल तुम भूले हो, मुझमें हर दस्तूर रखा है।
चाँदी की डिबिया में अब भी चुटकी भर सिन्दूर रखा है
नदी चली तुम सागर के घर
उत्सुकता की पायल पहने।
लहरों की ओढ़ी है चूनर
कलकल गढ़े तुम्हारे गहने।
बहती हो जिस ओर तुम्हारे
दायें उनका गाँव बसा है।
वहीं नयन वे खंजन रहते
दिल में जिनका तीर धँसा है।
अगर विरह मेरा कह पाओ
छोड़ किनारे उन तक जाना
हाल बताना सब समझाना
ना मानें तो लड़ भी आना
कहना प्यासे पड़े हुए हैं,
तुमने जो पनघट ठुकराये।
छोड़ आ गये तुम जो उपवन
उसके फ़ूल न फिर मुसकाए
इस दुनिया की पंचायत ने हमको अलग किया है लेकिन
दिल की पंचायत में हर अधिकार पत्र मंजूर रखा है।
चांदी की डिबिया में अब भी चुटकी भर सिन्दूर रखा है।
रूठे हो या है मजबूरी,
सहज नहीं लगती ये दूरी।
यहाँ अधूरा बिना प्राण मैं
बिन साँसों तुम वहाँ अधूरी
मैं बेघर बंजारा बादल
तुम धरती-सी प्यास लिए हो
मानो मैं ही वह बसन्त हूँ
जिसके हित मधुमास लिए हो
ये लज्जा की चादर झीनी
पत्थर की दीवार नहीं है
अगले जनम मिलेंगे कहना
क्या चाहत की हार नहीं है
क्या हम पर ही लागू होंगे
नियम उपनियम मर्यादाएँ
एक बार तुम पाँव बढ़ा दो,
रच देंगे नव प्रेम ऋचाएँ
मुझको अपने रंग में रंग लो, या रंग जाओ रंग हमारे,
रंग अभी फागुन में अपने हिस्से का भरपूर रखा है।
चांदी की डिबिया में अब भी चुटकी भर सिंदूर रखा है।