ज्वार के समय खड़ा था उस शाम मैं समुद्र किनारे
भीग रहा था तेज़ लहरों की बारिश-सी बौछार में
क्षितिज में गहरा रही थी लाली, कर रही थी इशारे
पच्छिम में डूबे दिन, बह रही थी हवा समुद्री क्षार में
चीख़ रहे जलपाखी कें..कें.., समुद्र-तट था ख़ाली
हाय... - मैं रोया उस क्षण - कितना दुखी ये जीवन
देगा नहीं कोई मुझे खाने को एक अनाज की बाली
जो पड़ी रह गई उजड़े खेतों में, बदल गया मौसम
घिसकर मेरा जाल पुराना हो गया था बेहद जर्जर
पर बची हुई ताक़त से फेंका, उसे फिर से सागर पर
परेशान था मैं उस समय बेहद, जीवन था बदहाल
क्या करूँ, कैसे जीऊँ, मुँह बाए खड़ा था ये सवाल
और चमत्कार हुआ जैसे फिर, वहाँ पड़ा मुझे दिखाई
लहरों से उभरा, अलबेला इक गोरा हाथ-सा, भाई
फिर भूल गया मैं सब पीड़ाएँ, दुख अतीत का अपना
देख लिया था मैंने जैसे, कोई सुन्दर-सा प्यारा सपना
1881.
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय
लीजिए, अब यही कविता मूल अँग्रेज़ी में पढ़िए
Vita Nuova
I STOOD by the unvintageable sea
Till the wet waves drenched face and hair with spray,
The long red fires of the dying day
Burned in the west; the wind piped drearily;
And to the land the clamorous gulls did flee:
“Alas!” I cried, “my life is full of pain,
And who can garner fruit or golden grain,
From these waste fields which travail ceaselessly!”
My nets gaped wide with many a break and flaw
Nathless I threw them as my final cast
Into the sea, and waited for the end.
When lo! a sudden glory! and I saw
The argent splendour of white limbs ascend,
And in that joy forgot my tortured past.
1881.