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नया साल / रामगोपाल 'रुद्र'

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बीत गया, लो! साल पुराना, नया साल फिर आया, साथी!
फिर पलकों के पुलिन पनीले, भाव-सिंधु लहराया, साथी! !

कितनी देर कहाँ बिरमे हम
कितना क्या पाया रंजोगम
कहाँ-कहाँ पर अपने दिल को
रोया किये, मनाया मातम
भूल जायँ भूलें जो भी कीं, दाग-दर्द जो पाया, साथी!
हम भूले हैं, जग भूला है, भूलों की यह काया, साथी! !

शूलों में संसार खिला है
शूलों में ही प्यार खिला है
जीत जिसे दुनिया कहती है
हारों का उपहार मिला है
डेग-डेग पर बिछी हुई है, यहाँ रूप की माया, साथी!
कहाँ-कहाँ क्या कहें कि हमको माया ने भरमाया, साथी!

जड़ तो जड़, जड़ता क्यों खोवे?
चेतन भी अचेत बन रोवे
जड़ता का यह भार विश्‍व
चाहता कि अब चेतन ही ढोवे
व्याप रही है चेतनता पर एक अचेतन छाया, साथी!
किस जादूगर ने जगती पर ऐसा जाल बिछाया, साथी!

नयी खोज का ज्ञान मिला है
ज्ञानी को विज्ञान मिला है
वैज्ञानिक को खोज-ढूँढकर—
प्रतिमा में पाषाण मिला है
अब तो सत्य वही, जो तर्कों से आकर टकराया, साथी!
जो न देखना कभी बदा था, ऐसा दृश्य दिखाया साथी!

एक साल, यह एक साल जो
बीत गया, यह विषमकाल, जो
गया, कयामत-सी बरपाकर
दुनिया का कर बुरा हाल यों
भूल सकेंगे क्या हम, इसने कैसा प्रलय मचाया, साथी!
भूल सकेंगे क्या हम, इसने क्या-क्या नाच नचाया, साथी!

कितने रौंदे गये देश, उफ्!
कितनों के लुट गये वेश, उफ्!
प्रकृति जहाँ इठलाती होती
अस्थि-भस्म हैं वहाँ शेष, उफ्!
दीन निहत्थों पर भी निर्मम बम्म गया बरसाया, साथी!
बच्चे, बूढ़े और युवतियों पर गोली की छाया, साथी!

'शांति' 'शांति' उसका भी स्वर है
जो अशांति का स्वयं निकर है
'न्याय' 'न्याय' उसकी पुकार है
स्वयं अनय पर जो तत्पर है
इस बीसवीं सदी ने, देखो, कैसा स्वांग रचाया, साथी!
सभ्यवेशधारी प्रपंच ने कैसा लोह बजाया, साथी!

प्राणों का बलिदान करें जन
युद्धों का यशगान करें जन
एक इशारे पर दिवान्‍ध बन
तन-मन-धन कुरबान करें जन!
यही शांति का स्रोत समझ बैठा है जग बौराया, साथी!
मानव के शोणित को मानव क पिशाच अकुलाया, साथी!

नभ अनभ्र अब आग उगलता
जलनिधि जन-जलयान निगलता
कोने-कोने में पृथ्वी के
धू-धू रण का पावक जलता
वज्र-वसुधा पर पुन: प्रलयवर्षी बादल घुमड़ाया, साथी!
क्या न करेगा त्राण हमारा फिर मोहन मनभाया, साथी!

क्या उपदेश दिया गौतम ने!
' तम का अंत किया तम ने?
वैर, वैर से कब जाता है? '
प्रीति-रीति क्यों खो दी हमने?
प्रियदर्शी का प्रेम-सँदेशा जग ने क्यों बिसराया, साथी?
क्यों शोणित के लिए, अकारण, मानव आज लुभाया, साथी!