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नया / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
जैसे सबकी तरह की मेरी नींद सबसे अलग
सबकी तरह का मेरा जगना सबसे अलग
रोज की तरह रहना यहीं पर हर रोज की तरह हर रोज से अलग
पर एक काँप अलग होने से जीने का मन नहीं भरता
कोई अंधड़ आये सारे पीले पत्ते झर जाएँ पेड़ दिखे अवाक करता अलग
मनुष्य होने का कुछ तो सुख मिले बसा रहूँ मकई के दाने-सा भुट्टे में
और खपड़ी में पड़ूँ तो फूटूँ पुराने दाग लिए मगर बिल्कुल अलग।