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नयी दुनिया / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
तुम आज विचारों के बल से,
जन ! रच दो दुनिया एक नयी !
यह उजड़ा वेश धरा का तो,
यह ग्रहण लगा शशि-राका तो,
आँखों को लगता बुरा-बुरा
पी ली मानों प्राचीन सुरा
तुम आज सृजन की घड़ियों में
जन ! रच दो दुनिया एक नयी !
तम के बादल काले-काले
गरज रहे हैं बन मतवाले,
घिरती घोर अँधेरी छाया
घेर रही मन को छल-माया,
तुम ज्योतिर्मय नव-किरणों से
जन ! रच दो दुनिया एक नयी !
उठता आता धुआँ गगन से,
व्याकुल मानव क्रूर दमन से,
शोषक-वर्गों का बल संचित
होगा निश्चय आज पराजित,
तुम आश नयी उर में भर कर,
जन ! रच दो दुनिया एक नयी !