नयी संस्कृति / महेन्द्र भटनागर
युग-रात्रि
निश्चय
विश्व के प्रत्येक नभ से मिट गयी !
अभिनव प्रखर-स्वर्णिम-किरण बन
झिलमिलाती आ रही
संस्कृति नयी !
सामने जिसके
विरोधी शक्तियाँ तम की बिखरती जा रहीं,
पर, ये विरोधी शक्तियाँ
कोई थकी जर्जर नहीं,
किन्तु;
इनसे जूझने का आ गया अवसर !
यही वह है समय
जब बल नया पाता विजय !
हमला ज़रूरी है,
कि देशों, जातियों, वर्गों सभी की
यह परस्पर की
मिटाना आज दूरी है !
इसी के ही लिए
प्राचीन-नूतन द्वन्द्व की आवाज़ है,
प्राचीन जो म्रियमाण,
जिसका आज
विशृंखल हुआ सब साज़ है !
जिसकी रोशनी सारी
नये ने छीन ली,
और जिसके हाथ से निकला
समस्त समाज है !
बस, पास केवल एक धुँधली याद है,
जिसका तड़पता शेष यह उन्माद है
'बीते युगों में हम सुखी थे;
किंतु अब रथ सभ्यता का
तीव्र गति से बढ़
पतन-पथ पर
जगत का नाश करने हो रहा आतुर !'
हमें अब जान लेना है
विनाशी तत्त्व घातक हैं वही
जो आज यह झूठा तिमिर करते विनिर्मित,
और रक्षक-दीप बनने का
विफल गीदड़ सरीखा स्वाँग भरते हैं !
कि धोखे से उदर अपना
भरा हर रोज़ करते हैं।
भला ऐसे मनुज
क्या लोक के कुछ काम आते हैं ?
नयी हर बात से मुख मोड़ लेते हैं
समय के साथ चलना भूल जाते हैं !
नज़र से
क्रीट, बेबीलोन के खण्डहर गुज़रते हैं !
बहाना है न उनको देखकर आँसू,
न उनकी अब प्रशंसा के
हज़ारों गीत गाने हैं !
नहीं बीते युगों के दिन बुलाने हैं !
नया युग आ रहा है जो
उसी के मार्ग में हमको
बिछाने फूल हैं कोमल,
उसी के मार्ग को हमको
बनाना है सरल !
जिससे नयी संस्कृति-लता के कुंज में
हम सब खुशी का
गा सकें नूतन तराना !
भूलकर दुख-दर्द
जीवन का पुराना !
1950