भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नरक / लीलाधर जगूड़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नरक में आकाश नहीं होता
नरक में खुशबू नहीं होती
नरक में शुद्ध हवा का एक भी झोंका नहीं होता
यहाँ तक कि नरक में कोई दूसरा रंग नहीं होता

नरक में सुई जैसी गलियाँ होती हैं
धागों जैसे रस्‍ते होते हैं
उलझे, नाजुक और अगम्‍य

नरक में घर नहीं होते। कोठरियाँ होती हैं
नरक में दीवारें ही दीवारें होती हैं
नरक में तहखाने ही तहखाने होते हैं
नरक में कुछ भी एक दूसरे से भिन्‍न नहीं होता
नरक में सब कुछ एक जैसा होता है
नरक में सब कुछ साबुत एकमुश्‍त और अखंड होता है
टुकड़ा टुकड़ा खंड-खंड कुछ भी नहीं

नरक में सब कुछ सटा हुआ होता है
कुछ भी नहीं होता है दूर-दूर
कुछ भी नहीं होता है पृथक-पृथक

नरक में दायरे ही दायरे होते हैं
दायरे से बाहर कुछ भी नहीं होता
कितना जाना पहचाना है नरक
हम में से कौन नहीं जानता है इसे।