नरभक्षी / दिनेश्वर प्रसाद
डरते क्यों हो?
चलो मेरे हड्डीईंट सूर्यान्ध सतघरे में
नीचे, नीचे
वहाँ नसों के तार में
ख़ूबसूरत आँखों के बल्ब जल रहे हैं ।
मेरे कीमियागरों ने
यह चान्दी आदमी की चर्बी से निकाली है,
यह सोना दीप्त चेहरों से निचोड़ा है ।
डरो मत, चलो मेरे रसोईघर में ।
वहाँ मेरा दोपहर का भोजन बन रहा है ।
यह अग्निशोधी मुण्ड
कड़ाह में उबक रहा है ।
मेरी ओर तने ये हाथ, फन उठाए ये पैर
मसाले से भूने जा चुके हैं ।
मेरी पाँचगजी नाक
मानुषगन्ध तुरत सूँघ लेती है।
जहाँ कहीं भी मनुष्य
एक्स-रे आँखों से मेरे चुम्बकी हाथ
उन्हें पकड़ लेते हैं ।
मेरी जिह्वा के छिद्र
सर्वत्र मानुषरस सोखते हैं ।
अन्न में भी मिलता है उन्हें किसान का ख़ून,
फलों में भी नरदेह का गूदा ।
आदमी का पतझड़ नहीं होता है ।
मेरे ख़ून पीने के बाद सूरज उसे
हर भोर अपना ख़ून देता है। हरियाली
उसे उपजाती है । मेरा पक्वाशय निश्चिन्त है ।
हिलो मत, छोड़ दूँगा ।
तुम्हारे सिरटेकी पूर्वजों का स्वाद तुममें नहीं।
तुम उपमान से उपमेय होना चाहते हो ।
मैं नहीं बनूँगा तुम्हारे साथ रूपक भी ।
मैं अपने छायाग्राही नाख़ून बढ़ा
अपना सुरसा-मुख फैला रहा हूँ ।