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नरैन दा / महेश चंद्र पुनेठा

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नहीं हैं उसके यहाँ
बड़े-बड़े आदमक़द आइने
दिखाते हों जो
अलग-अलग ऐंगिल से
हेयर-स्टाइल
न चिकना सनमाइका जड़ित फर्नीचर
न दीवारों पर
चटकीले-भड़कीले पोस्टर
न बड़े-बड़े ब्राँडों वाले
क्रीम-पाउडर
न अलग-अलग स्टाइल में
बालों को सँवारने वाली
अत्याधुनिक मशीन ।

बावजूद इसके अच्छा लगता है मुझे
नरैन दा के यहाँ बाल कटवाना
इसलिए नहीं कि
पंद्रह की जगह लेता है दस ही ।

मुझे अच्छी लगती हैं
एक हाथ में कंघी
दूसरे में कैंची लेते ही
शुरू होने वाली
उसकी दुनिया-ज़माने की बातें
जिसमें होती हैं-
गाँव-घर की
समाज के मान-मर्यादा की
अपने सुख-दुखों की
और पुराने दिनों की बातें

बाल काटते-काटते कैंची रोककर
कहना उसका
कितने अच्छे थे वे दिन
तमाम अभाव थे भले
लेकिन इंसानियत ज़िंदा थी
बहुत कुछ था जो आज से अच्छा था

फिर अपनी बात के पक्ष में
सुनाना कोई संस्मरण
बातों-बातों में
करने लगना बिगड़ते वक़्त पर
अपना आक्रोश व्यक्त
तब और तेज़-तेज़ चलने लगती है बालों में कैंची ।

इस तरह पता ही नहीं चलता
कब हो गए बाल कटकर तैयार ।
हर बार उसके पास
सुनाने को रहता है कुछ नया

बढ़ाता हूँ जब भी दस की जगह पंद्रह
यह सोचकर कि
अब के तो बढ़ा ही लिए होंगे उसने भी रेट
आग्रह करता हूँ रख लेने को
यह कहते हुए कि
और तो सब लेने लगे हैं पंद्रह
इंकार कर
लौटा देता है नरैन दा
जब तक चल रहा है साब इतने में
ठीक है फिर देख लेंगे ।

अच्छा लगता है उसका इस तरह
बाज़ार में खड़े होकर बाज़ार को जुतियाना ।