नर्स और मैं / सादिक़ रिज़वी
तड़प तड़प के गुजारीं शबें न नींद आई
अजीब कर्ब के आलम में गुज़री तन्हाई
शिकम के दर्द ने साँसों की डोर तक तोड़ी
यहाँ तलक के सहर ने भी ले ली अंगड़ाई
परेशां 'जेनिफर', दिल से खयाल रखती है
ये नर्स सारे मरीजों की थी भी शैदाई
मरीज़ दर्द की शिद्दत चीखता है जब
तो एक माँ की तरह इनके दिल पे चोट आई
है पेशा नर्स का सच्ची हलाल की रोज़ी
मगर ज़माने ने बख्शी बस इनको रुसवाई
जो इनको मिलती है उजरत उसी में यह खुश हैं
न इनके दिल में कभी हिर्स ने जगह पाई
हैं सारी नर्सों की एक हेड नर्स वर्षा जी
शेफा भी इनकी ही शफ़क़त ने जल्द दिलवाई
नज़र की झील में एक फ़िक्र हो बसी जैसे
बहुत खमोश तबीयत 'मिनी' ने है पाई
'सुनी' को देता हूँ आवाज़ अनसुनी कहकर
हुई है हंस के मुखातिब हमेशा मुस्काई
'जिशा' ने मुझसे बताया की आप लक्की हैं
लहू जो थूके नहीं बचता वोह मेरे भाई
'सुनी' हो 'जूली' हो 'जेसी' हो या 'विजी' सिस्टर
इन्हीं के प्यार से 'सादिक़' ने ज़िन्दगी पाई
(मार्च २००२ में मुंबई के नानावती हस्पताल के हार्ट इंस्टिट्यूट में इलाज के दौरान कही गयी नज़्म)