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नवदृष्टि / भास्करानन्द झा भास्कर

गहन अविद्या मध्य विभूषित
महाविद्या धन की लक्ष्मी बनकर,
है अति घनघोर घन घटाटोप,
निकलें हम दिव्य रश्मि बनकर।

आस-विश्वास के गौरव से
चीर धीर बने सबल मन बनकर,
निज जन है अरि निर्जन में,
सफ़ल बने हम सज्जन बनकर।

दॄश्य विश्व में असीम ऊर्जा से
स्वयं उर्ध्व बनें अन्तसृष्टि बनकर,
सौन्दर्य प्रभा है वन उपवन,
आत्म पान करें हम नवदृष्टि बनकर।