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नवम मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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फुलायल फूल अगणित
महमहायल पर्वतक प्रांगण
अगस्त्याश्रमक -
वासन्ती प्रभाव - प्रमत्त दक्षिण छल

पवन श्रीखण्ड-चर्चित छल
गगन नक्षत्र-सज्जित छल
विसर्जित छल -
दनुज-सत्ता, धरा ऋतुराज-रंजित छल

शिशिर छल भूतकालित
ते उमंगे आन ढगक छल
अधरपर
वर्त्तमानित स्वर-प्रसंगेआन ढंगक छल

भविष्यक ताप-संतापक
कथाके मानि अयथार्थित
समय-सागरक
तन-मनमे तरंगे आन ढंगक छल

अगस्त्यक संग लोपा
पुष्पमय उद्यान देखै’ छलि
चतुर्दिक आश्रमक -
गिरि-शिखरपर अनुराग छल पसरल

कतहु अरहुलक लाली छल
कतहु कचनार छल चतरल
कतहु चम्पाक
पीयर फूलपर एला-लता लतरल

प्रकृति छल सामवेदित
रस-निवेदित काव्य छल झहरल
मधुर संगीतमय-
वार्ताक क्रममे बहुत किछु अभरल

-‘महत्विक फूलसँ दु्रम
वा कि दु्रमसँ फूल अछि श्रेष्ठित?’
कठिन ई प्रश्न-
लोपाकेर पातर जीहसँ उचरल

ऋषिक उर-प्राणमे
ऋषिकाक प्रश्नक दार्शनिक मुद्रा
गगन-वनमे
विविध घन-सुमन-सन सौन्दर्य-व्यंजित छल

अधरपर स्मिति सुछन्दित छल
नयन मधु-राग रंजित छल
मनन प्रश्नित-
प्रसंगित आ व्वनन चिन्तन-मृदंगित छल

सुमन दु्रममे न कोनो
श्रेष्ठताक विवाद अछि लोपे!
सुमनमे फल,
फलेमे बीज, बीजेमे निहित दु्रम-दल

दु्रमेसँ फूल अछि बिकसल
दु्रमो अछि फूलसँ निकसल-
प्रतिष्ठित एक-
दोसरके करै’ अछि सुमन-दु्रम अविरल’

‘धरा-नभमे-
ककर महनीयताके अहाँ मानै छी?
ऋषिक प्रति प्रश्न ई दोसर-
हवामे छोड़लक लोपा

ऋषिक श्रुति देशमे
कयलक प्रवेश विशेष्ज्ञ प्रश्नक ध्वनि,
विशेषार्थक बनल,
जन नभ स्वयं ऋषि आ धरा लोपा

‘धरा अछि एक,
नभ नक्षत्र-ग्रह-वर्गक समुच्चय अछि
अहीं छी पैघ,
दै अछि प्रकृति-शय्या पुरुषके प्रति-भा

धरामे छैक उर्वरता
धरामे छैक रसमयता
धरामे ऐक्य-संस्कृति
पबै अछि शुचिता, प्रभा, आभा

‘सुमनमे
सुरभि के छै’ अछि?’
ऋषिक प्रति प्रश्न तेसर
सुगन्धित फूलके छबैत
ऋषिका बिहुँसि क’ पुछलक

नयनमे नीलिमा दमकल
अधरपर लालिमा अभरल
मधुरिमा शब्दमे एहन
कि जनु हो कोकिले कुहुकल

‘सुमन अछि स्वत‘ सुरभित
छै प्रकृतिके श्रेय नहि कोनो
प्रकृति नहि-
काँट अथवा डाँटमे सागरो सुरभि भरलक

सुरभि अछि गोत्रसँ टघरल
सुरभि अछि वंशमे उपजल’
अगस्त्यक उत्तरक
सभ वाक्य लोपा ध्यानसँ सुनलक

चलै’ छल प्रश्न-उत्तर
आ बढ़ल किछु डेग ऋषि-दम्पति
कि शिष्यक मंडलीके देखि
ऋषि कहलनि-‘चलू आश्रम

करव हम आइ किछु प्रवचन
करब हम आइ ऋतु मंथन
भरब जिज्ञासु शिष्यक-
प्राण-उरमे सांस्कृतिक संयम

कुशासन झाड़िक’
गेलै पसारल, शिष्य-छल बैसल
अगस्त्यो आसनित भेला
प्रसंगति छल कि -की अछि भ्रम?’

ऋषिक प्रारम्भ भेल कथन
कि लघुता बोध टा अछि भ्रम
मनुष्यक दृष्टिमे-
दैवत्व दै अछि सत्य बनि क’ श्रम

चलै’ छल ऋषिक प्रवचन
शिष्य-दल छल अर्द्ध चन्द्रित सन
कि तखने गगनमे
उत्तरक घन उमड़ल, पवन सिहकल