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नवम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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बनल छल श्वेत घन-पर्वत
हिमाच्छादित हिमालवत्
भ्रमक दृष्टान्त अछि ओ बिम्ब
ऋषि कण्ठक वचन उमड़ल

पुनः ऋषि बाजि उठला:
‘देश सत्य, प्रदेश होइछ भ्रम
कि खण्डित सत्य अछि भ्रम
ते भ्रमक इतिहास अछि बिगड़ल

विचारक भिन्नता अछि भ्रम
विखण्डित एकता अछि भ्रम
‘भ्रमक अस्तित्व नहि-
होयत, जत’ अछि सत्य-दृग सम्हरल

समय बीतल
गुरुक पद पूजि दीक्षित शिष्य दल ससरल
भ्रमण-प्रस्ताव
दक्षिण भारतक, लोपाक छल पसरल

ऋषिक रुचिके बहुत रुचलनि
भ्रमण-सत्यक क्षुधा जगलनि
विदा भेलाह ऋषिका-संग-
ऋषि; यात्राक स्वर उचरल

कतहु पर्वतक माला छल
कतहु निर्झर छल झहरल
कतहु वन-प्रान्तरक
शोभा ऋषिक मन-प्राणपर उतरल

नदीमे सलिल छल निर्मल
सभक दृग लगै छल कज्जल
सुसंस्कृत लगै छल
प्रत्येक नर-नारीक मुखमण्डल

समुद्रित क्षेत्र छल
शीतोष्ण, सम, समरस, सजल, सभटल
सुभद्रित शंख-सितुआमय
अलंकरणेक प्रचलन छल

कतहु छल प्रकृतिक अतिरंजित
कतहु भोजने बहुव्यंजित
कतहु गिरि शृंगार-
हरिणी-हरिण योगाभिव्यंजित छल

जतय रुकलाह ऋषि दम्पति
बनै’ छल आश्रमे तै ठाँ,
कतेको पर्वतक
ऋषि नाम-तीर्थ प्रसिद्धि पौने छल

कतेको संघटित ‘संघम’
ऋषिक अवदान छल अनुपम
कतेको ठाम-
ऋषिमे लोक दैवी तत्त्व पौने छल

कविक सहचरी कवयित्री
भ्रमणमे काव्य-स्वर बँटलनि
सुदक्षिण क्षेत्रके
काव्यक तुलापर जोखिक’ जँचलनि

कतहु नहि छल वसिष्ठक
वा कि विश्वामित्रकेर भनिता
अगस्त्यक नाम टा लोपा
सदा सुनलनि, सदा रटलनि

भ्रमण सम्पन्न क’
आश्रम पहुँचलनि जे कि ऋषि ऋषिका
अचानक राम-लक्ष्मणपर
नयन ऋषि दम्पतिक अँटकल

विनय-विनियुक्त स्वर अभरल
चरणपर नेह-जल टघरल
सुशब्दित भेल-
रामक कथ्य-ऋषिवर! बहुत छी भटकल

अहाँ छी परम विज्ञानी
अही छी आणविक मंत्रक
कृपापूर्वक कहू
रावणक वध ले की करी ऋषिवर!

हमर अछि शत्रु मायावी
तथा वनमासमे हम छी-
अही जँ-
अग्निमंत्रित तीर दी तँ काज हो ऋषिवर!

बहुत चिन्तनक बाद
अगस्त्य रामक तीर सभ लेलनि
हरिद्रित कुंडमे-
अभिमंत्र मंथित क’ घुमा देलनि

समुद कहलनि-‘मरत रावण
अहीसँ हे पतित-पावन!
अहँक सभ बाणके
अणु-प्रखरता वर वरुण अछि देलनि’

ऋषिक पद-स्पर्श
धनुके करा राम प्रयाणमय भेला
शुभाशीर्वचन द’ ऋषिवर
समाजक शत्रुके गनलनि

बहुत किछु ध्यानमे अयलनि
बहुत किछु ध्यानमे अयलनि
स्वराष्ट्रक सबल
प्रतिरक्षा-व्यवस्थापर नजरि गेलनि

ऋषिक भू्र-भंगिमा
आ भाल लिपिके पढ़ि समुद लोपा
भविष्यक-
सांस्कृतिक भारतक दृढ़ता सुशब्दिक कयलक

गगनमे नयन दौड़ओलक
घरामे राग-रस पौलक
अस्त्यक नाम-
नक्षत्रित गगनमे दिव्य-ज्योतित छल

कतहु निकटेक कानो गाछसँ
सुग्गाक स्वर आयल
कि ‘गुरु हमरो अगस्त्ये-
छथि, सुगुरु हमरो अगस्त्ये छथि’

बसातो सनसनायल
भनभनायल सजग मधुमाँछी
कहै हो जनु-
कि ‘गुरु हमरो अगस्त्ये छथि, अगस्त्ये छथि’

विरागक रागमे
लोपाक प्राणक अति ललित झंकृति
मधुर सुर-तान-लयमय
तोष बँटलक, तृप्तिके पौलक

कनेको दुःख नहि जे
विप्र कुलमे वधू बनलासँ
सुखक राजसी सुविधा
त्यागि, लोपा त्याग अनलौलक