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नवीं ज्योति - बसन्त-गीत / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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मा! यह बसन्त ऋतुराज री!
आया लेकर नव साज री!
मह-मह-मह डाली महक रही,
कुहु-कुहु-कुहु कोकिल कुहुक रही
सन्देश मधुर जगती को वह
देती बसन्त का आज री॥1॥
गुन-गुन-गुन भौरें गूँज रहे,
सुमनों-सुमनों पर घूम रहे,
अपने मधु गुंजन से कहते
छाया बसन्त का साज री॥2॥
मृदु-मन्द समीरण सर्-सर्-सर्,
बहता रहता सुरभित होकर,
करता शीतल जगती का तल
फूली सरसों पीली-पीली,
रवि-रश्मि स्वर्ण-सी चमकीली,
गिर कर उन पर खेतों में भी
भरतीं सुवर्ण का साज री!॥4॥
मा! प्रकृति वस्त्र पीले पहिने,
आयी इसका स्वागत करने,
मैं पहिन बसन्ती वस्त्र फिरूँ,
कहती-आया ऋतुराज री!॥5॥