नव अरुण का आह्वान / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
स्वतन्त्र उड़ रह विहग
सुवर्ण-पंख खोल कर,
स्वतन्त्र बह रही नदी
सुमेरु-शृंग फोड़ कर!
स्वतन्त्र सौर-चक्र की
विराट वृत्त-मेखला,
स्वतन्त्र सूर्य-चन्द्र हैं
स्वतन्त्र सृष्टि-शृंखला!
स्वतन्त्र घूमते विशाल
व्योम में मतंग घन,
स्वतन्त्र बह रहा मलय
पवन सनक सनन सनन
स्वतन्त्र क्यों बनें न तब
समृद्ध क्यों बनें न तब
समृद्ध प्राण-केन्द्र नर?
खगेन्द्र-सा खगोल धुन
विदीर्ण नाग-पाश कर?
विषाक्त तीव्र ताप से
विदग्ध भव्य वेश कयों?
जघन्य कूटनीति से
विछिन्न देश-देश क्यों?
पशुत्व छùवेश में
पिशाच-नृत्य कर रहा,
सदर्प न्याय-दुर्ग पर
दुखान्त चोट कर रहा।
बिसार बुद्धि-चेतना
सभीत काल से विषम,
उगल रही वसुन्धरा
विषाद-विष गरम-गरम।
विवस्त्र कोटि-कोटि जन
मुमूर्षू अन्नहीन हैं,
अकाल-काल-राहु से
ग्रसित अशान्त दीन हैं।
पिनाक दम्भ-द्वेष का
कराल दाढ़ खोलता,
ज्वलन्तफण फणीन्द्र-सा
सरोष साँस छोड़ता।
सुशान्ति, प्रेम, ऐक्य की
समृद्ध मनोवृत्तियाँ,
अस्वस्थ सिद्ध हो रहीं
समर्थ स्वस्थ नीतियाँ।
अभी खतम हुई नहीं
डरावनी महानिशा,
अभी क्षितिज विवर्ण है
सशंक है दिशा-दिशा।
फटे ज़मीन का कुहा
धुले दिगन्त का धुआँ,
मिटे कि तिमिर का नशा
जले कपूर का दिया।
विजन निकुंज म्लान में
निसंग प्राण-प्राण में,
शिथिल जलद-विमान में
सुनील आसमान में।
तने वितान मुक्ति का
उड़े पराग गन्ध का,
बजे मृदंग छन्द का
कि दीपराग मन्द कां
खिले गुलाब बन भुवन
अरुण किरण-फिरन पहन,
कछार, खेत, बाग़, वन
पहाड़, कन्दरा गहन।
प्रपंच कालनेमि आंजनेय
को ग्रसे नहीं,
प्रभुत्व स्वत्व-दंत से
अशक्त को डँसे नहीं।
(रचना-काल: मई, 1946। ‘विशाल भारत’, जुलाई, 1946 में प्रकाशित।)