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नव घन आज बनी पलकों में! / महादेवी वर्मा

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नव घन आज बनी पलकों में!
पाहुन अब उतरो पलकों में!

तम-सागर में अंगारे सा;
दिन बुझता टूटे तारे सा,

फूटो शत शत विद्यु-शिखा से
मेरी इन सजला पुलकों में!

प्रतिमा के दृग सा नभ नीरस,
सिकता-पुलिनों सी सूनी दिश;

भर भर मन्थर सिहरन कम्पन
पावस से उमड़ी अलकों में!

जीवन की लतिका दुख-पतझर,
गए स्वप्न के पीत पात झर,

मधुदिन का तुम चित्र बनो अब
सूने क्षण क्षण के फलकों में!