भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नव घरक ठेकान-पता / गंगेश गुंजन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
देखू अन्हरियाक आँचरमे
भरि आँजुर फूल सिंगरहार
अनेरे मौला गेल
सभ निफिकिर रहल
एते धरि जे लोक
जेना हम स्वयं, अहाँ, क्यो
एहिना चुबैत रहत ओलतीसँ पानि
खाम्ह लगक दीप
फकफकाइत रहत मिझएबासँ पूर्व
धपाएल अन्हार घेरि लेत चारू कात
घर ओसरा दलान
क्यों नहि चिन्ता करत अहाँक लेल आन।
गीड़ल जाइत बेंग जकाँ अहाँक आसमर्द
सभ सुननिहार रहत पंक्तिबद्ध साँप।
चूल्हिमे सुस्ताइत रहत भोर-साँझ टोल भरिक कुकुर
बाढ़िक धार जकाँ पसरल गेलए शत्रुक मुँह
लागल फसिलक खेत धाँसिते गेल धूर-धूर।
अमीनक पुरना जरीब (कड़ी) सँ नापल जाइत रहत
अहाँक कोंढ़ अहाँक स्त्रीक करेज आ बेटाक मन-माटि।
सौंसे समाज भोरे-भोरे भांगक दतमनि करैत रहत
अमीनी नाप एहिना नपैत रहत, कपड़ा जकाँ फाड़ैत रहत
अहाँक विश्वास आ पौरूख
चीरैत रहत गँहीर चौड़ा देवाल।
दोषी अहीं। नहि त’ ओ। ओ नहि त’ हम
हम अहाँक नाम तक बिसरि गेलहुँ।
विपत्ति कोन नामे सोर पाडू ?
हमरा लोकनि सभ सभक नाम एहिना बिसरि गेल छी
यद्यपि अहुँक जोबीमे होएत भरलो काठी दियासलाइ
हमरो संगमे अगड़म-बगड़म जर्जर वस्तुजात
अहूँ अन्होरेमे बौआइत छी मुदा हमरा नहि कहै छी
हमहूँ इजोते लेल छटपटाइत छी मुदा अहाँकें नहि बजबै छी
आ बीच मँहक वृद्ध प्रतितामहक नाम
वटवृक्ष सभ धोधेरिसँ विषाह भ’ चुकल अछि
आउ सभ मिलि एकरा डाहि दी।
जे क्यो आबए अनावश्यक मात्सर्य देखाब’
ओकर मिथ्या गुमान मारि घुस्सासँ
यथार्थमे ढाहि दी।